रविवार, अक्तूबर 27, 2013

मैं तब उठा हूँ नींद से!!!


दोस्तों कभी कभी हम जागकर भी सोते ह रह जाते हैं। जाने क्यों? सवाल ही एक बड़ा सवाल कि आखिर ऐसा क्यों होता है, क्यों हम नींद से बहुत देर में उठते हैं? मैं भी शायद सोता ही रह गया था, पर जब उठा तो पता चला कि बहुत देर हो गयी है। बहुत देर!!! और जब उठ ही गया तो लिखना तो बनता ही था तो लिख दिया जो भी लगा, न ही कोई बहर, न ही कोई लय बस लिखता चला गया। और देखा कि एक ग़ज़ल फिर से मेरे डायरी के पन्नों पर छप चुकी थी। आज समय मिला तो आपकी प्रतिक्रियाएं जानने के लिए अपने ब्लॉग पर डाल रहा हूँ। आप बताइये कैसी लगी।




जब सब तमाशा बन गया, मैं तब उठा हूँ नींद से 
जब हाथ से सब खो गया, मैं तब उठा हूँ नींद से 

मैं समझा जिनको हमसफ़र, वो न थे मेरे रहगुजर 
उन्होंने जब धोखा दिया, मैं तब उठा हूँ नींद से 

यकीन था जिनपर मुझे उन्होंने ही धोखा दिया 
जब लुट गया सब कुछ मेरा,  मैं तब उठा हूँ नींद से 

वो मुहब्बत ही है क्या जिसमे जुदाई है नहीं 
जुदाई कह के जब ठुकरा दिया,  मैं तब उठा हूँ नींद से 

दिन हजारों बीते कब ये न मुझे पता चला 
जब अंधकार छा गया,  मैं तब उठा हूँ नींद से 

ख़्वाबों की गहराइयों में डूबा था मैं इस कदर 
सपने जब टूटे मेरे मैं तब उठा हूँ नींद से 

गर्दिशें सब को मिले, ये पता मुझको भी है 
जब मेरी खुशियों पे ग्रहण लगा,  मैं तब उठा हूँ नींद से 

खुशियों को ढूंढता था, मैं मेरे अपनों में ही 
जब अपनों ने ही ग़म दिया,  मैं तब उठा हूँ नींद से 

अब तो देख  "आशु" सब लोग भी येही कहें 
जब हो गया बर्बाद सब ये तब उठा है नींद से 

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