रविवार, अक्तूबर 27, 2013

तेरा नाम भूल न पाऊं


चाहूँ के न चाहूँ नाम तेरा मैं लिख ही जाता हूँ 
आईने के सामने ख़ुद को कभी न पाता हूँ।

रात दिन मैं दर-बदर, राहों में फिरता रहूँ 
क्यों अकेला खुद की बातें खुद को ही समझाता हूँ।

अब न आती नींद है न है मुझे करार ही 
खुद के दुःख को मैं कभी किसी से न बतलाता हूँ।

ऐसे गयी है छोड़कर जैसे न हो रिश्ता कोई 
टूट गया रिश्ता मेरा, क्यों फिर भी इसे निभाता हूँ?

हो गयी है दूर मुझसे फिर भी है गिला नहीं 
तेरे बिन जीना पडेगा, इस बात से घबराता हूँ।

इक गीत बन गया हूँ ग़मगीन राहों में यहाँ 
इसको ही अब सुनता हूँ और सबको मैं सुनाता हूँ।

हिज़्रा-ए-ग़म को "आशु" भूल न पाऊं कभी 
चाहूँ भुलाना मैं मगर खुद ही को भूल जाता हूँ।

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