शनिवार, नवंबर 30, 2013

ख्याल

ये ग़ज़ल लिखना मेरी मज़बूरी थी, लिखना नहीं चाहता था पर कुछ लोगों ने मज़बूर किया इससे लिखने के लिए। कहानी लम्बी है पूरी बात बता भी नहीं सकता हूँ पर इतना जरुर है के लोग बड़े एहसान फरामोश होते हैं। और सवाल है आपसे मेरा क्या कभी किसी एक का ख्याल किसी दूसरे से नहीं मिल सकता?

जो मिल जाए किसी का ख्याल किसी से 
क्या चोरी है हो जाती घर से किसी के।।

गर लिख दें हम भी किसी बड़े शायर की भाँती 
तो कहते हैं न बन तू शायर अभी से।।

किसी की ग़ज़ल का गर इक शब्द ले लिया तो 
है दामन पे लग जाता दाग तभी से।।

कोई ले ले शब्द को पहले अगर तो 
क्या हो जाता फिर वो अलग है सभी से।।

वो कहते हैं भाव हमारा लिखा है 
वो कहते हैं भाव हमारा लिखा है 
मगर क्या वो भाव है दिल में उन्हीं के?

निकल ही गये 'आशू' की आँखों में आंसू 
अब लिखेंगे शायरी हम इसी से इसी पे।।

मेरा दर्द रिस गया


मेरी कलम से आज मेरा दर्द रिस गया 
रोका बहुत मैंने उसे पर वो निकल गया।।

इससे पहले मैं कभी भी रोया नहीं था 
पन्ना मेरा आज ये अश्कों से भर गया।।

इक फूल था खिलने की डगर, पर अचानक से 
हैं क्या हुआ खिलने से पहले ही मुरझ गया।।

मैं कर रहा इंतज़ार के आएगी वो कभी 
ये इंतज़ार ही मेरी खुशियों को डस गया।।

लिखने को मिले शब्द न तो कुछ भी लिख दिया 
ये कुछ भी मेरे दर्द की पहचान बना गया।।

अश्कों की जगह 'आशू' का बहने लगा लहू 
इसी लहू से अब तो है दामन भी सन गया।।

यादों के पुलिंदे


अपनी यादों के पुलिंदे खंगालता रहा 
तुझको उनमें हरसू संभालता रहा।।

बिखर गया था टूटे पत्थर सा मैं 
तेरे लिए ही खुद को संवारता रहा।।

तू न मांगे दुआओं में अपनी मुझे 
मैं तो तुझको रब से हूँ माँगता रहा।।

तू हो गयी है मुझसे कितनी ही दूर 
मैं तो तुझे ही हरसू पुकारता रहा।।

'आशू' की बात तुझको न आई समझ 
उम्रभर तुझको ये ही समझता रहा।।

प्यार शायद था नहीं


किस्मत में मेरी प्यार शायद था नहीं 
खुद पे ऐतबार शायद था नहीं।।

क्यूँ मैं रात रात भर, ऐसे ही रोता हूँ
जीने का सुरूर शायद था नहीं।।

याद कर तू वो बज़्म वो तन्हाइयाँ 
तुझको याद मेरे यार शायद था नहीं।।

मैं हूँ एक राही तू मंज़िल मेरी 
मंज़िल पे खुमार शायद था नहीं।।

साक़ी से कहता हूँ अब पीना नहीं 
उसको भी मुझपे प्यार शायद था नहीं।।

बेवफ़ा तेरी वफ़ा कहाँ गई 
मैं ही वफ़ा काबिल शायद था नहीं।।

दुखों ने दामन है जकड़ा हुआ 
सुख मेरा सरकार शायद था नहीं।।

आज 'आशू' ही यहाँ तड़पे नहीं 
प्यार में वो खुमार शायद था नहीं।।

प्यार में वो खुमार शायद था नहीं।।   

शरारत दिल में

शरारत दिल में होती है 
तड़पना हम को पड़ता है

आंसू आँखों में होते हैं 
सिसकना हम को पड़ता है 

करें क्या ये बता हमें 
तू एक बार तो ख़ुदा 

तेरी रेहमत न हो अगर 
यूँ मरना हम को पड़ता है

हमीं ने प्यार है किया 
हमीं को दर्द है दिया 

जिसे न प्यार है हुआ 
वो ही तो खुश हैं जी रहा 

ये तेरी कैसी मार है 
मुझी पे करती वार है

मेरे इस शीशे के दिल को 
तुझी ने टुकड़े है किया 

कभी तो प्रेम को तूने 
हमीं को भीख में दिया 

कभी जब रूठ तू गया 
हमीं को लूट भी लिया 

अगर तू है कहीं यहाँ 
मेरी फरियाद सुन ज़रा 

तेरे कदमों में बैठा हूँ 
मुझे तू दान दे ज़रा  

तू मेरे यार को मुझसे
कहीं पे फिर से दे मिला    

नहीं तो मेरे इस दिल को 
थोड़ी सी आस दे ज़रा 

शरारत दिल में होती है 
तड़पना हम को पड़ता है

आंसू आँखों में होते हैं 
सिसकना हम को पड़ता है 

उस आग में न जल

जीवन को अपने यूँ ही ज़ाया कभी न कर 
जो राख कर दे तुझको उस आग में न जल।।

गर आया है धरती पे तो तू काम ऐसा कर 
याद आए तेरी सबको तू यार ऐसा बन।।

वो फासले मिटा दे जो हैं यूँ दरम्यान।।

तेरी कलम से रिसके गर आ सका जूनून
तो बदलेगा ज़माना कभी न कभी जरुर।।

जीवन को अपने यूँ ही ज़ाया कभी न कर 
जो राख कर दे तुझको उस आग में न जल।।

उस रास्ते को चुन जो जाता है बदी को 
उसपे कभी न तू चल जाए पाप की तरफ।।

तू ही यहाँ तूफ़ान है तू ही यहाँ फ़ौलाद है 
तू रवि की रोशनी तू चाँद की है चांदनी।।

जीवन को अपने यूँ ही ज़ाया कभी न कर 
जो राख कर दे तुझको उस आग में न जल।।

शुक्रवार, नवंबर 15, 2013

पछतावा!!!


उस दिन इक कदम उठा लेता तो आज न पड़ता पछताना।
कर लेता थोड़ी सी कोशिश तो आज न हँसता ज़माना।।

कहते हैं अब लोग मुझे मैं हूँ डरपोक ज़माने में।
सुन गर अपने दिल की लेता तो पड़ता न खुद को छिपाना।।

सारी दुनिया दुश्मन है बनी सारा परिवार बना दुश्मन।
गर चल मैं कांटो पर जाता तो होता नया ही फसाना।।

खाली महसूस करूँ खुद को, कोई है नहीं बचा मेरा।
पर उस दिन गर बढ़ जाता तो मेरा भी होता घराना।।

थोड़ी हिम्मत करके गर मैं भीड़ जाता उस दुःख के सैलाब से।
सारे दुःख दूर चले जाते खुशियों का मिलता खज़ाना।।

बुरी परछाई हट जाती नया सवेरा हो जाता।
थोड़ी सी कोशिश कर लेता न भरना पड़ता हर्जाना।।

नई रहे मुझे मिल जाती बुरे रस्ते सब हट जाते।
जो खोया है मैंने दुनिया फिर न पड़ता ऐसे कमाना।।

कैसे खुद को मैं निकालूं इस भयावह भंवर से।
जो कश्ती न चली अब तक उसको आ जाता चलाना।।

तेरी ही चाहत







है फ़क़त तेरी ही चाहत है तेरा ही इंतज़ार 
तू करेगी जाने कब मुझपे थोडा ऐतबार।।

मैंने तो तुझपे ही वारा अपना दिल अपना जहाँ 
कब करेगी जाने तू मुझपे अपना दिलनिसार।।

करता हूँ हरसू मैं कोशिश तुझसे मिलने कि ही बस 
आके कहदे मुझसे तू कि हूँ मैं तेरी एकबार।।

मिला भी तब उससे था जब हो रही थी वो विदा 
इक झलक देखा भी तब जब मैं बना उसका कहार।।

वो देखते ही देखते थी हो गयी 'आशू' जुदा 
        न हुआ इकरार भी इस बात का था बस मलाल।।      

मंगलवार, नवंबर 05, 2013

वो रात आखरी...


वो रात आख़री वो मुलाक़ात ओ-सनम
है याद मुझे हर वो तेरी बात ओ-सनम।।

जो-जो भी तूने मुझको हैं इलज़ाम दे दिए 
आँख बंद सहली तेरी करामात ओ-सनम।।

आया था जो तूफ़ान मुझे याद अब भी है 
बिन छत सही है मैंने वो बरसात ओ-सनम।।

बदली है जिन्दगी मेरी बस एक ही पल में 
खुद ही तो मारी खुशियों को है लात ओ-सनम।।

इस दर्द के सैलाब में कैसे जिया हूँ मैं
न देखा तूने मुड़के इक बार ओ-सनम।।

छाई है काली घटा "आशू" के जीवन में 
अब तो खुदा भी न सुने मेरी फ़रियाद ओ-सनम।।

सोमवार, नवंबर 04, 2013

लावारिसों कि एक कतार

आज अचानक मैं अपनी डायरी के उस पन्ने पर जा पहुंचा, जहाँ बहुत समय पहले कुछ लिखर भूल सा गया था। याद ही नही था कि मैंने एक ऐसी कविता भी लिखी है जिसमें न तो बहर है न ही कोई लय, बस भाव थे जो खुद ही बहने लगे। सच मानिए मैंने नही लिखा बस लिखवा दिया गया। मुझे नही पता क्या हुआ था उस दिन बस कलम चलने लगी और मैं लिखता चला गया, बिना ये सोचे कि कुछ नियम हैं जिन्हें ध्यान में रखकर लिखना होता है। पर उस दिन मैं हर नियम भूल गया सा था और लिख गया, बस लिख गया...




सडकों पर लावारिसों कि एक कतार देखी है।
क्या उनका कोई वारिस नही होता?

बेबसी और लाचारी की मार देखी है।
हर तरफ हरसू, हर बार देखी है।

क्यों इतनी बेबसी है दुनिया में?
क्यों इतना बड़ा फैसला दिखता है?

क्या इन्हें हक़ नहीं है समानता का जीवन जीने का?
या हमारी मानसिकताएं इन्हें जीने नहीं देती।

इन्हें समाज से अलग थलग कर देती हैं।
सवाल बड़ा है, पर जवाब शायद नहीं है।
क्यों किसी के पास इस बात का जवाब नहीं हैं?

गरीबी के सही मायने लावारिस और बेबस ही जानते हैं।
भूखा रहकर जीना क्या होता है, उसे सही तरह से पहचानते हैं।

ऐसा क्या गुनाह कर दिया इन लोगों ने।
जो ये इस तरह का जीवन जी रहे हैं।

कूड़ेदान से रोटी उठाकर पेट भरना।
हर किसी के बस कि बात नहीं।

क्या आप भी ऐसे खाली पेट रह सकते हैं?
अगर नही तो सोचिये कितनी बेबसी होगी उस जगह?
जहां ये लोग रहते हैं, जीते हैं।

कितनी भयावह स्थिति होगी उस जगह।
सोचकर देखिये-

शायद उनका कुछ भला हो जाए।  

जिन्हें दिल में हम...

जिन्हें दिल में हम अब बसाने लगे थे 
वही दूर अब हम से जाने लगे थे।

जो कहते थे आँखें तेरी हम बनेंगे 
वही हमसे नज़रें चुराने लगे थे।

थी उनको जिन भी रकीबों से नफ़रत 
उन्हीं को वो अपना बताने लगे थे।

जिनपर यक़ीन था खुद से भी ज्यादा 
वही झूठा कहकर बुलाने लगे थे।

जो सोचा नहीं था खयालों में हमने 
उसे सोच सोच घबराने लगे थे।

न मांगी खुदा से थी उसकी खुदाई 
क्यों खुदा भी हमको भुलाने लगे थे।

जो मिलते थे सहरा में साहिल पे "आशू"
वही मिलने में अब कतराने लगे थे।

गुनहगार


ग़मों कि महफ़िल के मेहमान हो गए 
गुनाह किये बिना ही गुनहगार हो गए।

फूलों से की थी मोहब्बत हमने
फूलों से की थी मोहब्बत हमने 
दामन में कांटे बेशुमार हो गए।

ग़मों कि महफ़िल के मेहमान हो गए।

याद जब भी करते हैं ज़ालिम जब भी उसे 
याद जब भी करते हैं ज़ालिम जब भी उसे 
जीने कि चाहत में खुशगुमार हो गए।

ग़मों कि महफ़िल के मेहमान हो गए।
गुनाह किये बिना ही गुनहगार हो गए।

इश्क़ है या नहीं, ये पता नहीं अब तक हमें
इश्क़ है या नहीं, ये पता नहीं अब तक हमें
फिर भी यूहीं उसके प्यार में बर्बाद हो गए।

 ग़मों कि महफ़िल के मेहमान हो गए।

जब भी उसकी आँखों में देखा हमने 
जब भी उसकी आँखों में देखा हमने 
नज़रें झुकाकर वो शर्मसार हो गए।

ग़मों कि महफ़िल के मेहमान हो गए।
गुनाह किये बिना ही गुनहगार हो गए।

दिन जब आया ज़ाहिर-ए-इश्क़ का 
दिन जब आया ज़ाहिर-ए-इश्क़ का 
बयां किये बिना ही रुसवार हो गए।

ग़मों कि महफ़िल के मेहमान हो गए।

दोस्ती न मिली किसी कि हमें 
दोस्ती न मिली किसी कि हमें 
सबके दुश्मन हम ख़ास हो गए।

ग़मों कि महफ़िल के मेहमान हो गए।
गुनाह किये बिना ही गुनहगार हो गए।

मिले जब आखिरी बार उससे 
मिले जब आखिरी बार उससे 
कुछ अनजान सवालों के शिकार हो गए।

ग़मों कि महफ़िल के मेहमान हो गए।

लोगों ने पूछा मुझसे के ओरे "आशू"
लोगों ने पूछा मुझसे के ओरे "आशू"
तुम क्यों इस इश्क़ के शिकार हो गए।

ग़मों कि महफ़िल के मेहमान हो गए।
घरवालों कि नज़रों में लापरवाह इंसान हो गए।

ग़मों कि महफ़िल के मेहमान हो गए।
गुनाह किये बिना ही गुनहगार हो गए।
गुनाह किये बिना ही गुनहगार हो गए।

बेबसी (एक नारी ऐसी भी)












मैं बस स्टॉप पर बैठा अपनी डायरी में कुछ लिखने कि सोच रहा था, तभी मेरी नज़र सड़क किनारे काम करती और भीख मांगती  दो औरतों पर गयी और मैंने देखा कि वह किसी आम औरत से 50 गुणा ज्यादा काम कर रही थी। और उन्हीं के बगल में कड़ी एक सजी धजी औरत उन्हें देखकर अपनी सहेली से उन्हीं के बारे में कुछ कहकर हंस रही थी। पता नहीं कि क्या बातें हो रही थी पर उस दिन इतना जरुर सामने आया कि भारत का एक बड़ा तबक़ा ऐसा है जो अगर रोजमर्रा कि दिहाड़ी मजदूरी (भीख माँगने का काम)  न करे तो वो भूखा मर जाएगा। भूखा तो उन्हें फिर भी रहना पड़ता है पर एक वक़्त का खाना तो मिल ही जाता है। लेकिन इसे पाने के लिए इन्हें जी तोड़ नहीं जीवन तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। और सरकारी है कि विकास कि दुहाई देती नहीं थकती। चलिए इसे छोड़ते हैं, अपनी कविता पर आते हैं।



एक नारी ऐसी भी-

दिनभर करती है काम धाम
न मिलता है आराम राम।

न घर हैं इनके पास पास 
सडकों कि हैं सरताज राज 

खाने को न हैं कुछ भी पास 
भूखी रहती दिन रात रात। 



एक नारी ऐसी भी-

बच्चों को बाधें पीठ पीठ
सडकों पर मांगे भीख भीख।

न घर हैं इनके पास पास 
सडकों कि हैं सरताज राज 

चुग चुग कर रोटी खाएं खाएं 
इसके सिवाय कुछ मिल न पाये।

 एक नारी ऐसी भी-

ओढ़न को न है केस वेस 
ये ओढ़े बादल का केस।

न घर हैं इनके पास पास 
सडकों कि हैं सरताज राज. 
To be continued...