सोमवार, नवंबर 04, 2013

लावारिसों कि एक कतार

आज अचानक मैं अपनी डायरी के उस पन्ने पर जा पहुंचा, जहाँ बहुत समय पहले कुछ लिखर भूल सा गया था। याद ही नही था कि मैंने एक ऐसी कविता भी लिखी है जिसमें न तो बहर है न ही कोई लय, बस भाव थे जो खुद ही बहने लगे। सच मानिए मैंने नही लिखा बस लिखवा दिया गया। मुझे नही पता क्या हुआ था उस दिन बस कलम चलने लगी और मैं लिखता चला गया, बिना ये सोचे कि कुछ नियम हैं जिन्हें ध्यान में रखकर लिखना होता है। पर उस दिन मैं हर नियम भूल गया सा था और लिख गया, बस लिख गया...




सडकों पर लावारिसों कि एक कतार देखी है।
क्या उनका कोई वारिस नही होता?

बेबसी और लाचारी की मार देखी है।
हर तरफ हरसू, हर बार देखी है।

क्यों इतनी बेबसी है दुनिया में?
क्यों इतना बड़ा फैसला दिखता है?

क्या इन्हें हक़ नहीं है समानता का जीवन जीने का?
या हमारी मानसिकताएं इन्हें जीने नहीं देती।

इन्हें समाज से अलग थलग कर देती हैं।
सवाल बड़ा है, पर जवाब शायद नहीं है।
क्यों किसी के पास इस बात का जवाब नहीं हैं?

गरीबी के सही मायने लावारिस और बेबस ही जानते हैं।
भूखा रहकर जीना क्या होता है, उसे सही तरह से पहचानते हैं।

ऐसा क्या गुनाह कर दिया इन लोगों ने।
जो ये इस तरह का जीवन जी रहे हैं।

कूड़ेदान से रोटी उठाकर पेट भरना।
हर किसी के बस कि बात नहीं।

क्या आप भी ऐसे खाली पेट रह सकते हैं?
अगर नही तो सोचिये कितनी बेबसी होगी उस जगह?
जहां ये लोग रहते हैं, जीते हैं।

कितनी भयावह स्थिति होगी उस जगह।
सोचकर देखिये-

शायद उनका कुछ भला हो जाए।  

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