शनिवार, दिसंबर 21, 2013

कितने मुसाफिर हैं यहाँ

कितने मुसाफिर हैं यहाँ, वीरान बस्ती में
पर सब यहाँ खुद से खफ़ा, वीरान बस्ती में.

हैं जानते सबकुछ मगर अनजान हैं बने
हर शक्स मांगे इक मकां, वीरान बस्ती में.

हैं चढ़ रहे एक दूसरे पर पैर रख रखकर
बेनूर है ये कारवाँ, वीरान बस्ती में.

कितना अकेला है यहाँ हर आम आदमी
घुट घुट के आंसू पी रहा, वीरान बस्ती में

है कर रहा फ़रियाद हाथों को फैलाए
पर है नहीं कोई सगा, वीरान बस्ती में

है आस न पर फिर भी है इंतज़ार कर रहा

के होगा इक बदलाव यहाँ, वीरान बस्ती में

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