मैंने समझा मेहताब था
पर उसमें भी कोई दाग था
हर बार बचा था मैं जिससे
वो ही तो मेरा काल था
जो छिपा रही वो थी मुझसे
शायद उसमे कोई राज़ था
जो हुआ नहीं कभी पूरा
टूटा हुआ मेरा ख़्वाब था
रब के आगे झुकता न कोई
हर बंदा यहाँ खूंखार था
वो निकल गई आगे मुझसे
फिर भी मुझे इंतज़ार था
अश्कों से भीगा था ‘आशू’
वो तन्हा था, बदहाल था.
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