रविवार, दिसंबर 22, 2013

मैंने समझा मेहताब था


मैंने समझा मेहताब था
पर उसमें भी कोई दाग था

हर बार बचा था मैं जिससे
वो ही तो मेरा काल था

जो छिपा रही वो थी मुझसे
शायद उसमे कोई राज़ था

जो हुआ नहीं कभी पूरा
टूटा हुआ मेरा ख़्वाब था

रब के आगे झुकता न कोई
हर बंदा यहाँ खूंखार था

वो निकल गई आगे मुझसे
फिर भी मुझे इंतज़ार था

अश्कों से भीगा था ‘आशू’

वो तन्हा था, बदहाल था.   

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