मंगलवार, सितंबर 30, 2014

हाँ मुझे दर्द होता है.

हाँ मुझे दर्द होता है.

मैं जब भी खुद से तेरे बारे में कुछ जिक्र करता हूँ

हाँ मुझे दर्द होता है.

हाँ मुझे दर्द होता है मैं जब भी सांस लेता हूँ

हाँ मुझे दर्द होता है.

वो छत भी याद है मुझको, पतंगे उड़ती हुईं
खतों में जब तेरे, मैं खुद को ढूंढता हूँ

हाँ मुझे दर्द होता है.

हाँ मुझे दर्द होता है मैं जब भी सांस लेता हूँ

हाँ मुझे दर्द होता है.

वो तारे देखना और ढूंढना चेहरा तेरा उनमें
वो रातें याद आयें तो

हां मुझे दर्द होता है.

हाँ मुझे दर्द होता है मैं जब भी सांस लेता हूँ

हाँ मुझे दर्द होता है.

तेरा वो तांकना खिड़की से, गली में खोजना मुझको
वो लम्हा गुजरे जब फिरसे

हां मुझे दर्द होता है.

हाँ मुझे दर्द होता है मैं जब भी सांस लेता हूँ

हाँ मुझे दर्द होता है.

सुबह उठना वो जल्दी से, वो सजना संवरना
जब भी तड़प वो उठती है

हाँ मुझे दर्द होता है.

हाँ मुझे दर्द होता है मैं जब भी सांस लेता हूँ

हाँ मुझे दर्द होता है.

हाँ दोस्त भी जुदा होने लगे थे मुझसे उस दौरां
खुदी में फिर से खौऊँ तो हाँ मुझे दर्द होता है.

हाँ मुझे दर्द होता है.

हाँ मुझे दर्द होता है मैं जब भी सांस लेता हूँ

हाँ मुझे दर्द होता है.

To be continued…

-अश्वनी कुमार

सोमवार, सितंबर 29, 2014

जितने भी ग़म सहते रहे...

जितने भी ग़म सहते रहे

जितने भी ग़म सहते रहे, कलम से सब बहते रहे.
करके बहाना नज़्म का, हम पन्नों से लिपटे रहे.

दर्द क्या है हमने जाना, दूर होकर ऐ खुदा.
अपने ही झूले से हम, सूली बन लटके रहे.

हो गया तबादला इस दर्द से उस दर्द में.
बनके लहू ये आंसू, आँखों से गिरते रहे.

जिसका लिखा है ग़ज़लों में वो नाम बस तेरा ही है.
तुझे इतना ही बस बताने को, हम उम्रभर लिखते रहे.

रात दिन जो था मुझे वो इंतज़ार है तेरा.
किवाड़ों पर आंखें बिछी, सारे दिए बुझते रहे.

ना चैन आये है मुझे न आये है करार ही.
तेरी ही तलाश में अब दर बदर फिरते रहे.

ज़िंदा लाश बन गया है “आशू” उसे ये क्या हुआ.
अब चले जहां भी, वहीँ निशाँ पड़ते रहे.


-अश्वनी कुमार

कभी तुम हो बोतल

कभी तुम हो बोतल

कभी तुम हो बोतल
कभी तुम नशा हो
कभी तुम मज़ा हो
कभी तुम सजा हो

कभी तुम बनी हो नदिया की धारा
कभी तुम बनी हो साहिल हमारा

कभी तुम हो फूलों की खुशबु सुहानी
कभी तुम हो झरनों से गिरता वो पानी

कभी तुम हो बोतल
कभी तुम नशा हो
कभी तुम मज़ा हो
कभी तुम सजा हो

कभी तुम हो सपनों से नींदें उड़ाती
कभी गाके लौरी हो मुझको सुलाती

कभी तो मुझे हो तुम कितना सताती
कभी पास आके फिर मुझको मनाती

कभी तुम हो बोतल
कभी तुम नशा हो
कभी तुम मज़ा हो
कभी तुम सजा हो

कभी जब भी देखो हो शरमा के मुझको
मेरा दिल करे भर लूँ बाहों में तुझको

कभी तुम मुझे हो मुझी से चुराती
कभी आके दिल अपना मुझको दे जाती

कभी तुम हो बोतल
कभी तुम नशा हो
कभी तुम मज़ा हो
कभी तुम सजा हो

कभी जब न होती हो आँखों के आगे
मेरा दिल न जाने कहाँ कहाँ भागे

कभी जब तुम मुझसे हो जाती हो गुस्सा
मेरा दिल करे खुद को मरुँ इक मुक्का

कभी तुम हो बोतल
कभी तुम नशा हो
कभी तुम मज़ा हो
कभी तुम सजा हो

सताया है तुमको बहुत मैंने फिर भी
कहती हो ये भी तो फितरत है दिल की

कभी तुम हो बोतल
कभी तुम नशा हो
कभी तुम मज़ा हो
कभी तुम सजा हो


-अश्वनी कुमार

शुक्रवार, सितंबर 26, 2014

इंतज़ार बाक़ी है.


इंतज़ार... इंतज़ार इंतज़ार बाक़ी है.
तुझे मिलने की ललक और खुमार बाक़ी है.

यूँ तो बीती हैं सदियाँ तेरी झलक पाए हुए.
जो होने को था वो ही करार बाक़ी है.

खाने को दौड़ रहा है जमाना आज हमें.
*1यहाँ पे एक नहीं कितने ही जबार बाक़ी है.

वोही दुश्मन है, है ख़ास वोही सबसे मेरा.
दूरियां बरकरार, फिर भी इंतेज़ार बाक़ी है.

यूँ तो है इश्क़ हर जगह, फैला अनंत तलक.
मगर वो खुशबु इश्क़े जाफरान बाक़ी है.

Picture By Rudolf

तेरा कसूर नहीं पीने वाले दोषी हैं.
तू ग़म को करने वाला कम महान साक़ी है.

पलटती नांव से पूछो क्या डरती लहरों से हो.
कहेगी न, क्योंकि संग में उसके कहार माझी है.

जहां पहुंचे न रवि, कवि पहुंच ही जाता है.
हम क्यों हैं अब भी यहाँ पर मलाल बाक़ी है.

जब भी लिखें तो जमाने के आंसू बहने लगे.
अभी लिखने में मेरे यार धार बाक़ी है.

कभी कोई, कभी कोई मिज़ाज़ बदले तो हैं.
जो था बचपन में, वोही मिज़ाज़ बाक़ी है.

यूँ तो हम भूल गए बात सारी, शख्स सभी.
जो भी है संग उसमें माँ की याद बाक़ी है.

तराने यूँ तो बहुत हैं जिन्हें हम सुन लेते.
जिसे सुनने की चाह, तराना-जहान बाक़ी है.

जो बैठे हैं अपने में सिमट के, उठ खड़े हों.
आगे तुम्हारे सारा आसमान बाक़ी है.

कहाँ ढूँढू ऐ ‘आशू’ तुझको इन पहाड़ों में.
इनकी ऊँचाइयों में कहाँ प्यार बाक़ी है?

*1 (जबार- जाबिर- ज्यादती करने वाले)
-अश्वनी कुमार 


गुरुवार, सितंबर 25, 2014

याद आता है मुझको किस्सा पुराना

के याद आता है मुझको किस्सा पुराना
तिरे मेरे मिलने का था वो जमाना

के बारिश भी थी हलकी हलकी वहां पर
ख़ुदा ने था खोला जैसे रोशान दाना

के तरुवर की छाया से छनता वो पानी
हाँ ऐसे था गिरता हो मुझको सताना



मैं बैठा था खुद ही से मिलने जहां पर
उठा जब मिला फिर मुझे इक खज़ाना

हाँ जाता कहाँ तन्हा राहों के पीछे
जहां पे रुका था मेरा ही तराना

वो बेचैन साहिल सुनसान था पर  
बचा ही लिया जिनको था पार जाना

तरसते हुए सारा जीवन बिताया

के मिलता नहीं अब भी भर पेट खाना

सोमवार, सितंबर 15, 2014

वो हलकी हलकी बारिशें


वो हलकी हलकी बारिशें मुझे अब भी याद है
न साथ होके भी तू मेरे ही साथ है.

हर बात कर ली मैंने जब दूर जा रही
वो अब भी अधूरी है जो असली बात है.
 
झरना सा झर रहा था आँखों से मोती का
मैं चुन न पाया उनको, मलाल आज है.

उसकी रजा की सोच कर चुपचाप बैठा था
दिन तो गुजर गए बहुत एक बाकी रात है.

मैंने खुदी को समझा सबसे करीब उसके
पर सूना है उसका कोई और खास है.

हर शब पुकारे मुझको आ जा करीब आ जा
कैसे कहूँ मैं भोर की अलग बिसात है.

वो लडकियां जो सडकों पर शिकार बन रही
क्यों दुनिया में उनके लिए फैला तेज़ाब है?

वो छत पड़ोसियों की, वो पतंगें उड़ाना

वो यादें भुरभुरी से मेरे अब भी साथ हैं.

-अश्वनी कुमार

मंगलवार, सितंबर 02, 2014

चल रहे हैं रास्ते!

चल रहे हैं रास्ते!


के चल रहे हैं रास्ते मैं ही ठहर गया
उन मंजिलों की सोच कर जैसे सहम गया...

अपनी ही धुन में रहता था जो आदमी अब तक
न जाने कैसे इक पल में ही इतना बदल गया...

हरियाली थी चारों तरफ मैं ही वीरान था
मुझपे न जाने कैसा वो ढाके कहर गया...

जहां था गुजारा बचपन जवानी गुजार दी
न जाने कब था छुटा पीछे शहर गया...

अब आ गए हैं आगे हम बहुत ही आगे
जिस सफ़र में था जीवन अब वो सफ़र गया...

दीवाने हो गए 'आशू' जिस इश्क-ए-हिज्रा में 
फिर धीरे धीरे दूर मुझसे उसका असर गया...

सोमवार, अगस्त 25, 2014

मोहब्बत इक खजाना है!


के अक्सर सोचते है हम, मोहब्बत इक खजाना है.
खजाना जब था मोहब्बत, जमाना वो पुराना है.
                                          
बदल रही है चाहतें, बदल रही है मोहब्बत.
आज हर कोई दुनिया में, खुद में ही सयाना है.

जिसे गाते थे याद करके, सुकून मिलता था हमें.
सीने पर लोबान रखकर भुलाया वो तराना है.

वो माँ जो रूठ जाती थी, मेरी शैतानियों आगे.
नहीं रही है संग मेरे, मगर उसे मनाना है.

चले बाज़ार की तरफ, किस्मत खरीदने को हम.
नहीं बिकती है ये किस्मत, खुदी को ये बताना है.

ज़माने से छिपा लिया था सारा ग़म, मुझे मिला.
ज़माने से नहीं तुझे ये अपने आप से छिपाना है.

“आशू” सता लिया बहुत, कितनों को अब सताएगा.

मेरी किस्मत कहे मुझसे मुझे, तुझे सताना है.

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सोमवार, अगस्त 18, 2014

दिल की कुछ ख्वाइशें

दिल की कुछ ख्वाइशें


दिल की कुछ ख्वाइशें उड़ने को तैयार हैं.
कदम खुद ही तेरी ओर चलने को तैयार है.

जिए तो खूब हैं हम दिल खोलकर
आज तुझपे हम मरने को तैयार हैं.

अभी तक कुछ किया या नहीं हमने.
पर आज कुछ करने को तैयार  हैं.

इश्काना माहौल सख्त हो गया है आजकल.
पर हम हैं कि इसमें पिघलने को तैयार हैं.

शाखों पे पत्ते है बेशुमार मगर.
हम बस एक ही पर मिटने को तैयार हैं.


-अश्वनी कुमार

गुरुवार, अगस्त 07, 2014

तेरी ओर आना चाहूँ

तेरी ओर आना चाहूँ, पर तूफ़ान हैं बहुत.
मिलन के बीच में यहाँ, शैतान हैं बहुत.

चलो दिलकशी का दौर है, हम भी ज़रा चख लें.
बूढ़े हैं कम यहाँ, यहाँ जवान हैं बहुत.

चलो फैला लो पंख पंछी, कब से निराश हो.
हिम्मत तो करो फिर से के मैदान हैं बहुत.

वबा रही है फ़ैल, यहाँ सब बीमार हैं.
  हम रोक ले ते इसको पर बेईमान हैं बहुत.

अपनी नहीं है सोचते जो मुल्क के आगे.
ऐसे ही विरले देश पर कुर्बान हैं बहुत.

मिटा तो गर चाहते हो, तुम हस्ती हमारी.
अलग दिल से करोगे कैसे के, हिन्दुस्तान हैं बहुत.

‘आशू’ तड़प रहा है, अब पास जाने को.

पर अपने हैं कम यहाँ, यहाँ अनजान हैं बहुत. 

Originally Published at :- Yuvasughosh.com and Bharatmitrmanch


सोमवार, अगस्त 04, 2014

हमें कुछ लोग कहते हैं

हमें कुछ लोग कहते हैं, के हम परेशानी में रहते हैं.
उन्हें कैसे बताएं हम, के वीरानी में रहते हैं.

जगा दे रूह को जो वो तो आहट होती ही रहती.
मगर हम हैं जुदा, ओनु ही रवानी में रहते हैं.

कहीं पर बाढ़ है, धरती कहीं खिसकने लगी है.
यहाँ पर लोग सभी, दुखों की सानी में रहते हैं.

कहीं कुछ होता रहे, अपने में ही मग्न जो रहें.
यही बचपन (बच्चे) हैं, जो यादें सयानी में रहते हैं.

बुढ़ापा चढ़ गया, हर ओर बदहाली के बादल हैं.
मगर कुछ लोग अब भी अपनी जवानी में रहते हैं.

सुने किस्से बहुत हमने वो लैला और मजनू के.
है ज़िंदा इश्क अब भी, या फिर हम कहानी में रहते हैं.

के ‘आशू’ रोक न पाया अश्कों को बहने से.
                जब से सूना है उसने, लोग दलाली में रहते हैं.

गुरुवार, जुलाई 31, 2014

मर हम गए

जब दर्द हद से बढ़ गया, तब मर हम गए.
मरहम कहीं जब न मिला, तब मर हम गए.

भोर शब होने लगी बसमें नहीं कुछ भी.
जब हर कोई गुम हो चला, तब मर हम गए.

कोई बचा न हम कदम, कोई भी मुहब्बत.
ये दिल बहुत सहता रहा, तब मर हम गए.

होते रहे तब्दील हम दर्दों की अंजुमों से
साहिल का फिर भी न पता, तब मर हम गए.

हो रही थी हर कहीं मुहब्बतें बरखा.
दिल रह गया सूखा खड़ा, तब मर हम गए.






सोमवार, मार्च 31, 2014

लगा रिसने...

लगा रिसने...

लगा रिसने भरा सैलाब था जो भावों का
संजोऊ, कहाँ न है खबर न है पता...
संजोऊ मैं कहाँ इसे न खबर न है पता...
लगा रिसने.....................भावों का.................!!!

मंजिलें थी कहाँ, हम तो यूँहीं चल थे पड़े
कहते हैं, दोष है इसमें बेगुनाह राहों का...
लगा रिसने भरा सैलाब था जो भावों का
संजोऊ मैं कहाँ इसे न खबर न है पता...
लगा रिसने.....................भावों का.................!!!

जिसे कहते थे मौत, जिंदगी बनी मेरी
जिसे कहते थे मौत, जिंदगी बनी मेरी
आज बस है, सहारा है, उसी की बाहों का...
लगा रिसने भरा सैलाब था जो भावों का
संजोऊ मैं कहाँ इसे न खबर न है पता...
लगा रिसने.....................भावों का.................!!!

तबियत कैसी है, ये तो नहीं पूछो यारों
हाल मैं क्या कहूँ, टूटे मेरे अरमानों का...
लगा रिसने भरा सैलाब था जो भावों का
संजोऊ मैं कहाँ इसे न खबर न है पता...
लगा रिसने.....................भावों का.................!!!

कभी यहाँ, कभी वहां दिललगी करते थे
पर जो ये दौर है, वो है बड़े दीवानों का...
लगा रिसने भरा सैलाब था जो भावों का
संजोऊ मैं कहाँ इसे न खबर न है पता...
लगा रिसने.....................भावों का.................!!!

कभी रकीब थे जो, आज हैं करीबी हुए
कभी रकीब थे जो, आज हैं करीबी हुए...
अब तो कोई मोल ही न है, यहाँ बहानों का...
लगा रिसने भरा सैलाब था जो भावों का
संजोऊ मैं कहाँ इसे न खबर न है पता...

लगा रिसने.....................भावों का.................!!!
-अश्वनी कुमार