आज उन पैरों को देखा जिनमें
गांठें थी पड़ी
अज उस व्यथा को जाना, सामने
हरसू खड़ी.
आसमां भी रो पड़े माहौल है
बनने लगा
आंसू हैं बहने लगे हर हाथ
मांगे इक छड़ी.
पत्ता भी है पेड़ बनने का
जुगाड़ हर रहा
उससे कहदो कलियाँ हैं जो पहले
से इसपर अड़ी.
नांव माझी से कहे उस पार
जाना है नहीं
डूबने के डर से वो इस ओर ही
कब से सड़ी.
चलना था जिस ओर, आगे राह तो
गुम हो गई
हम चले जिस ओर, उस ओर कभी न
मुड़ी.
आग लगती है तो छाता है धुआं
घना घना
इस धुएं के पार इक सुबह खड़ी
है भुरभुरी.
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