शुक्रवार, जनवरी 17, 2014

दौर हैं बदल रहे...


आज अचानक से जहन में एक महान साहित्यकार, कवि, ग़ज़लकार ‘दुष्यंत कुमार’ की एक पंक्ति आ गयी. उस ग़ज़ल की उस पंक्ति को अपनी जुबान से अगर मैं बोल भी लेता हूँ तो मेरे रोंगटें खड़े हो जातें हैं. वो सदाबहार पंक्ति है, ‘हो गई है पीर पर्बत सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकालनी चाहिए’. मैं दुष्यंत कुमार के पैरों की धुल भी नहीं हूँ. और न कभी भी उनके बराबर खड़ा हो सकता हूँ आज वह हमारे बीच में नहीं है, पर प्रेरणा हैं हम जैसों के लिए. मैं माफ़ी चाहता हूँ हर उस शक्स से जो मेरी इस गुस्ताखी को पढेगा. पर मैं अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ, मैं आज इस ग़ज़ल में कुछ पंक्तियाँ जोड़ रहा हूँ. ये पंक्तियाँ जोड़ने से यह ग़ज़ल मेरी न हो जायेगी, रहेगी ये उस महान व्यक्तित्त्व कि ही जिसने इसकी नींव को रखा है. मैं एक बार फिर से सबसे माफ़ी मांगना चाहता हूँ. पंक्तियाँ इस प्रकार हैं.


दौर हैं बदल रहे, पुराने से नए की ओर
बंद थी, जो अब तलक, किस्मत वो खुलनी चाहिए.


रोक लें गर, हम किसी को दलदल-ए-अपराध से
एक सुर में, ये हवा चहुं ओर बढ़नी चाहिए.


रौशनी जो छिप गई थी, बादलों की आड़ में
फिर से जीवन बनके हर इंसा पे पड़नी चाहिए.


हर कहीं, हर ओर हरसू, चल पड़ी है जो लहर
चल पड़ी जो अब है तो कभी न थमनी चाहिए.


आम आदमी उठ खड़ा हुआ है, बदलाव को

झंझावत से आस की, ज्वाला न बुझनी चाहिए.

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