के याद आता है मुझको किस्सा पुराना
तिरे मेरे मिलने का था वो जमाना
के बारिश भी थी हलकी हलकी वहां पर
ख़ुदा ने था खोला जैसे रोशान दाना
के तरुवर की छाया से छनता वो पानी
हाँ ऐसे था गिरता हो मुझको सताना
मैं बैठा था खुद ही से मिलने जहां पर
उठा जब मिला फिर मुझे इक खज़ाना
हाँ जाता कहाँ तन्हा राहों के पीछे
जहां पे रुका था मेरा ही तराना
वो बेचैन साहिल सुनसान था पर
बचा ही लिया जिनको था पार जाना
तरसते हुए सारा जीवन बिताया
के मिलता नहीं अब भी भर पेट खाना
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