चल रहे हैं रास्ते!
के चल रहे हैं रास्ते मैं ही ठहर गया
उन मंजिलों की सोच कर जैसे सहम गया...
अपनी ही धुन में रहता था जो आदमी अब तक
न जाने कैसे इक पल में ही इतना बदल गया...
हरियाली थी चारों तरफ मैं ही वीरान था
मुझपे न जाने कैसा वो ढाके कहर गया...
जहां था गुजारा बचपन जवानी गुजार दी
न जाने कब था छुटा पीछे शहर गया...
अब आ गए हैं आगे हम बहुत ही आगे
जिस सफ़र में था जीवन अब वो सफ़र गया...
दीवाने हो गए 'आशू' जिस इश्क-ए-हिज्रा में
फिर धीरे धीरे दूर मुझसे उसका असर गया...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें