शनिवार, अक्तूबर 26, 2013

यादों के पुलिंदें

 मैंने कहीं सूना था कि एक ग़ज़ल में अगर पांच शेर हों, तो वो पूरी मानी जाती है। उसी बात को ध्यान में रखकर एक ग़ज़ल बहुत पहले लिखी थी जो आज यहाँ लिख रहा हूँ। इसे लिखने के पीछे क्या कारण रहा है, ये तो बता नहीं सकता, क्योंकि सारी बातें नही बताई जा सकती पर अपने भाव तो आपके सामने व्यक्त कर ही सकता हूँ। तो कर रहा हूँ, बताइगा केसी लिखी है।   




अपनी यादों के पुलिंदें खंगालता रहा 
मैं तुझको उनमे हरसू संभालता रहा 

बिखर गया था टूटे पत्थर सा मैं 
बस तेरे लिए ही खुद को संवारता रहा 

तू मांगे या न मांगे मुझे दुआओं में 
मैं तुझको ही बस रब से मांगता रहा 

तू है कितनी दूर मुझसे हो गयी 
मैं तो हरसू तुझे ही पुकारता रहा 

"आशु" की बात तुझको न आई समझ 
उम्र भर इसे ही मैं मलालता रहा! 

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