इक बात अभी भी बाकी है...
मुझसे फिर क्यों नाराज़ी
है...
नहीं सुनती जब तक बात मेरी
बेकार की ये आज़ादी है...
बेकार की ये...
हर मुमकिन कोशिश की मैंने
वो बात तुम्हें बताने की...
पर क्यों हो तुम अनजान बनी
क्यों रूठे दिल से बैठी
हो...
नहीं सुनती जब तक बात मेरी
बेकार की ये आज़ादी है...
बेकार की ये...
दो बात यहाँ पर बनती है
तेरे बेनाम बहानों की...
पहली तू न सुनना चाहती
दूजी डरती घरवालों से...
नहीं सुनती जब तक बात मेरी
बेकार की ये आज़ादी है...
बेकार की ये...
जो सुन लेती मेरी पीड़ा
तो फिर से प्रीत लगा
लेती...
पर तूने तो खाली है कसम
के सुननी नहीं दीवाने की...
नहीं सुनती जब तक बात मेरी
बेकार की ये आज़ादी है...
बेकार की ये...
दिन आयेगा जब रोएगी
अपने किये सारे कामों पर...
और लिक्खेगी दीवारों पर
सारे बीते अफसानों को...
नहीं सुनती जब तक बात मेरी
बेकार की ये आज़ादी है...
बेकार की ये...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें