सीढ़ी चढ़ते चढ़ते जैसे गिर गया कोई
तकदीर के आगे अपनी झुक गया कोई.
कैसी लकीरें हाथ में दिखने लगी हैं अब
इन्हीं लकीरों के जाल में है बंध गया कोई.
आरजू कुछ और थी कुछ और हो गयी
इस जिंदगी की आग में है जल गया कोई.
चाहे निकलना हर घड़ी निकल नहीं पाता
उस रेत के तूफ़ान में है फंस गया कोई.
गिरती हुई उस बर्फ़ की हम बात क्या करें
इस बर्फ़ की बरसात में है दब गया कोई...
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