रविवार, दिसंबर 22, 2013

अपनी ही अंजुमन में

अपनी ही अंजुमन में मैं अंजाना सा लगूं
बिता हुआ इस दुनिया में फ़साना सा लगूं.

गाया है मुझको सबने, सबने भुला दिया
ऐसा ही इक गुजरा हुआ तराना सा लगूं.

अपने ही हमनशीनों ने भुला दिया मुझे
तो कैसे अब मैं गैरों को खजाना सा लगूं.

कई बार डूबा हूँ वहां मंजिल जहां पे थी
आज इक डूबा हुआ किनारा सा लगूं.

एक दिन निकल गया मैं खोज में उनकी
वो तो मिली नहीं, खुद को ही बेगाना सा लगूं.

‘आशू’ की आंसू थम न पाए आज तक

ऐसे गई के बिता हुआ ज़माना सा लगूं.    

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