कहते हैं इक ग़ज़ल में, कुछ
शब्द मायने रखते हैं.
पर शायर से तो पूछो कि
कितने जमाने लगते हैं.
इन शब्दों का ताना बाना
आसां नहीं यारों
ग़ज़ल लिखते तो दे कोई भी पर
बहुत फ़साने लगते हैं.
कभी न था पता रदीफ़ का, न
वाकिफ़ थे काफ़िये से
पर अब तो ये सारे ही हमको
हमारे लगते हैं.
जब से आई है बहर हमें तब से
पता नहीं
किस अंजुम में हम खो गए कुछ
शब्द, हज़ारों लगते हैं.
कभी भाव नहीं आता है हमें, कभी
छंद नहीं मिलते हैं
जब न मिले हमें कोई भी हम
कुछ भी लिखने लगते हैं.
पर कुछ भी लिख-लिख ‘आशू’ आ
है वहां पहुंचा
जहाँ दुश्मन भी सारे उसकों
अपने प्यारे लगते हैं.
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