सोमवार, नवंबर 04, 2013

बेबसी (एक नारी ऐसी भी)












मैं बस स्टॉप पर बैठा अपनी डायरी में कुछ लिखने कि सोच रहा था, तभी मेरी नज़र सड़क किनारे काम करती और भीख मांगती  दो औरतों पर गयी और मैंने देखा कि वह किसी आम औरत से 50 गुणा ज्यादा काम कर रही थी। और उन्हीं के बगल में कड़ी एक सजी धजी औरत उन्हें देखकर अपनी सहेली से उन्हीं के बारे में कुछ कहकर हंस रही थी। पता नहीं कि क्या बातें हो रही थी पर उस दिन इतना जरुर सामने आया कि भारत का एक बड़ा तबक़ा ऐसा है जो अगर रोजमर्रा कि दिहाड़ी मजदूरी (भीख माँगने का काम)  न करे तो वो भूखा मर जाएगा। भूखा तो उन्हें फिर भी रहना पड़ता है पर एक वक़्त का खाना तो मिल ही जाता है। लेकिन इसे पाने के लिए इन्हें जी तोड़ नहीं जीवन तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। और सरकारी है कि विकास कि दुहाई देती नहीं थकती। चलिए इसे छोड़ते हैं, अपनी कविता पर आते हैं।



एक नारी ऐसी भी-

दिनभर करती है काम धाम
न मिलता है आराम राम।

न घर हैं इनके पास पास 
सडकों कि हैं सरताज राज 

खाने को न हैं कुछ भी पास 
भूखी रहती दिन रात रात। 



एक नारी ऐसी भी-

बच्चों को बाधें पीठ पीठ
सडकों पर मांगे भीख भीख।

न घर हैं इनके पास पास 
सडकों कि हैं सरताज राज 

चुग चुग कर रोटी खाएं खाएं 
इसके सिवाय कुछ मिल न पाये।

 एक नारी ऐसी भी-

ओढ़न को न है केस वेस 
ये ओढ़े बादल का केस।

न घर हैं इनके पास पास 
सडकों कि हैं सरताज राज. 
To be continued...  

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